जीवनी/आत्मकथा >> बसेरे से दूर बसेरे से दूरहरिवंशराय बच्चन
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आत्म-चित्रण का तीसरा खंड, ‘बसेरे से दूर’। बच्चन की यह कृति आत्मकथा साहित्य की चरम परिणति है और इसकी गणना कालजयी रचनाओं में की जाती है।
Basere Se Door a hindi book by Harivansh Rai Bachchan - बसेरे से दूर - हरिवंशराय बच्चन
अपने पाठकों से
(पहला संस्करण)
आज आपके सामने प्रस्तुत है मेरे आत्म-चित्रण का तीसरा खण्ड, बसेरे से दूर', जिसे मैंने पहले 'हंस का पश्चिम प्रवास' कहना चाहा था।
आप में से बहुत लोग बड़ी उत्सुकता के साथ इस खण्ड की प्रतीक्षा करते रहे हैं, अनेक इसको शीघ्र प्रस्तुत करने की माँग भी, सबसे अधिक आग्रही तो मेरे प्रकाशक ही रहे हैं, पर इससे पूर्व यह सम्भव न हो सका। सृजन के मामले में, मुझे खेद है, मैं अपने से बाहर के किसी प्रकार के प्रोत्साहन, प्रलोभन अथवा दबाव का लिहाज़ नहीं कर पाता।
मैं इस खण्ड में मुख्यतया अपने जीवन की उस अवधि की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, जिसमें मैं अपने देश-नगर, घर-परिवार से दूर जाकर इंग्लैण्ड-केम्ब्रिज में रहा, विलियम बटलर ईट्स के साहित्य पर शोध कर केम्ब्रिज युनिवर्सिटी से पी-एच० डी० की उपाधि ली, आधुनिक अंग्रेज़ी कविता का स्वाध्याय किया, एकाधिक ब्रिटिश युनिवर्सिटियों में जीवन, अध्ययन और अध्यापन की विधि देखी, समझी, सौ से ऊपर छन्दोबद्ध और मुक्त छन्द की कविताएँ लिखी, जो बाद को 'प्रणय-पत्रिका', 'आरती और अंगारे' और 'बुद्ध और नाचघर' नामक संग्रहों में प्रकाशित हुईं-एक लम्बी कविता किन्हीं निजी कारणों से अब भी अप्रकाशित है-बहुत-सा गद्य लिखा, जो 'प्रवास की डायरी' के नाम से प्रकाशित हो चुका है, इंग्लैण्ड और आयरलैण्ड का भ्रमण किया, अंग्रेज़ी और आयरी समाज के विविध रूपों को देखा-विश्वविख्यात अकादमिक संस्थाओं से लेकर गुह्य, कुख्यात नाइट क्लबों तक- बड़े-बूढ़े विद्वानों से लेकर साधारण युवक-युवतियों के सम्पर्क में आया। यह प्राय: बाहरी बातें हुईं, जिनकी सूची काफी लम्बी मालूम होती है। इस अवधि में जो मैंने चिन्तन-मनन किया, जो सोचा-विचारा, जिन आशाओं-आकांक्षाओं को जगाया, जिन भय-चिन्ताओं से गुज़रा, जिन शंका-सन्देहों में झूला, जिन मानसिक कुरेदनों और कसावों में पड़ा उनकी सूची भी अगर देना चाहूँ तो कम लम्बी नहीं होगी, हालाँकि सूची उनकी गहनता और गहराई का शायद ही कोई आभास दे सके। एक बात शुरू में ही बहुत संक्षेप में कह देना चाहता हूँ कि इस छोटी-सी अवधि में जितना मैंने लिखा-पढ़ा, देखा-सुना, जाना-पहचाना, भोगा-सहा, अनुभव-अवगत किया, उतना मैंने इतने ही काल-माप में अपने जीवन में कभी नहीं किया। इसी से मुझे लगा कि यदि मैं इस अवधि की झाँकी आपको कराना चाहूँ तो इसके लिए अपनी आत्मकथा को एक स्वतन्त्र खण्ड देना पड़ेगा।
एक बहुत बड़ी संख्या में मैं ऐसे पाठकों की कल्पना कर सकता हूँ, जो मेरी आत्मकथा के पहले और दूसरे खण्ड, 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' और 'नीड़ का निर्माण फिर' को क्रमश: पढ़ने के बाद इस तीसरे खण्ड को पढ़ना आरम्भ करेंगे। उनसे मुझे इसके सिवा और कुछ नहीं कहना है कि जो कहानी मैंने सुनानी शुरू की थी उसी को पूर्ण करने के क्रम में यह अगली और अन्तिम किस्त है। आशा करता हूँ कि कहानी का यह भाग भी आपको रोचक लगेगा। पाठक की रोचकता समाप्त होने से पूर्व कहानी को समाप्त कर देना कहानीकार की सबसे बड़ी कला है। विश्वास है, मैंने आपके धैर्य को ऊब की सीमा तक नहीं खींचा।
इसके पूर्व, सम्भव है, आपने 'प्रवास की डायरी' भी पढ़ ली हो। न पढ़ी हो तो उसे आप ‘बसेरे से दूर' की भूमिका के रूप में पढ़ सकते हैं। डायरा में कही बातों को मैंने आत्मचित्रण में नहीं दुहराया, सिवा उनके , जिनको कथा-सूत्र सम्बद्ध रखने के लिए फिर से कहना आवश्यक था। डायरी को मैंने प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका कहा है। पुस्तकें बगैर भूमिका देखे भी आनन्द से पढ़ी जा सकती हैं. अपवाद यह पुस्तक भी नहीं है।
'बसेरे से दूर' के कुछ ऐसे पाठकों की भी कल्पना मैं करता हूँ, जो इसके पर्व की कथा से पूर्णतया अपरिचित या खण्डश: परिचित हों। मैं उनसे यह तो न कहना चाहूँगा कि इसके पूर्व की कथा पढ़े बगैर वे इसे न पढ़ें, क्योंकि मैंने प्रयत्न किया है कि प्रत्येक खण्ड को अपने में पूर्ण इकाई के रूप में प्रस्तुत करूँ। वास्तव में, जो पूर्णतया सम्बद्ध है-जैसा कि जीवन-वही खण्डों में भी पूर्ण रह सकता है। पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते... शायद भौतिक स्तर पर भी किसी अंश में सत्य हो। साथ ही मुझे यह विश्वास है कि मेरे जीवन का कोई खण्ड आपको रोचक लगा तो उसके आगे-पीछे के खण्डों के लिए भी आपकी जिज्ञासा जागेगी-we look before and after (हम पीछे भी देखा करते हैं, आगे भी)।
एक खण्ड से दूसरे खण्ड की परस्पर तुलना भी स्वाभाविक है। मेरे बहुत-से पाठकों ने पहले के दो खण्डों की तुलना की है और एक को दूसरे से उन्नीस या बीस पाया है। यह प्रवृत्ति तीन खण्डों के सामने आ जाने से और बढ़े तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा। सब खण्डों का सब की दृष्टि में सम लगना उतना ही असम्भव है, जितना अपनी दृष्टि में उनको ऐसा रखना। जीवन अपनी प्रकृति से ही विषम है। मेरा बल, मेरा गुण, यदि मुझमें कुछ है, तो जीवन के निकट रहने, जीवन से हिलगे रहने में है। जो खण्डों की विषमता के प्रति अधिक सचेत हों, उन्हें एक परिचित ग्रामीण कहावत की याद दिलाना चाहता हूँ-पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती।
दूसरे खण्ड के मेरे कतिपय पाठकों की राय यह थी कि उसमें मैं अपने कवि-व्यक्तित्व के प्रति अधिक. सचेत हो गया हूँ। इस सम्बन्ध में मुझे इतना ही कहना है कि जिसे मेरा व्यक्तित्व कहा जा सकता है, उसमें कवि-अकवि का कोई विभाजन नहीं है। मेरा कवि, यदि उसे कभी सही रूप में देखा जाये, तो वह मेरे जीवन से ही जुड़ा, प्ररोहित, प्रादुर्भूत और उसका ही प्रक्षिप्त अंग प्रतीत होगा। अपने जीवन जीवन की चर्चा में मैं उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता था। पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों से मेरे जिन बहुसंख्य पाठकों ने मुझे कवि के रूप में जाना है, उन्हें मेरे जीवन प्रसंग में मेरे सृजन की थोड़ी-बहुत चर्चा असंगत नहीं लगी। यदि मैं कहीं समझी जाने योग्य इकाई हूँ तो मेरी कविता से मेरे जीवन और मेरे जीवन से मेरी कविता को समझना होगा। मुझे ऐसा स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि जैसे मेरी कविता आत्मकथा-संस्कारी है, वैसे ही मेरी आत्मकथा कविता-संस्कारी है। मैं अपनी भूल में, यदि यह मेरी भूल हो तो भी, यह जानकर कुछ आश्वस्त होता हूँ कि मानतेन भी, जो मेरी इस लेखन-यात्रा में कुतुबनुमा के समान मेरा पथ-प्रदर्शन करते रहे हैं, अपने आत्म-चित्रण The Essays (दि एसेज़) में अपने निबन्धकार को नहीं भूल सके। फिर भी प्रस्तुत खण्ड में मैंने अपनी दृष्टि मुख्य रूप से मुख्य रूप से-अपने अध्यापक, शोधक, आलोचक पर रखने का प्रयत्न किया है, क्योंकि इन्होंने भी मेरे जीवन को रूप देने में कम महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई।
पाण्डुलिपि को अन्तिम रूप देने में श्री सत्येन्द्र शरत् ने जो सहायता दी उसके लिए उनका बहुत आभारी हूँ।
टाइप कापी को प्रेस के लिए तैयार करने में श्री अजित कुमार और डॉ. जीवन प्रकाश जोशी से जो सहयोग मिला उसके लिए उनके प्रति भी कृतज्ञ हूँ।
आत्मचित्रण के इस अन्तिम खण्ड पर आप अपनी कोई प्रतिक्रिया देना चाहें तो उसका मैं स्वागत करूँगा।
13, विलिंगडन क्रिसेंट,
नई दिल्ली-11
7 जुलाई, 1977
- बच्चन
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